फिल्म ‘चिड़िया’ की 10 साल बाद बड़े पर्दे पर हुई वापसी, चॉल, संघर्ष और बैडमिंटन से जुड़ी दो भाइयों की कहानी ने छू लिया दिल!

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जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:

30 मई को थिएटर्स में रिलीज़ हुई फिल्म ‘चिड़िया’ न केवल एक प्रेरणादायक कहानी कहती है, बल्कि वह फिल्म निर्माण की उस जद्दोजहद को भी बयां करती है जो पर्दे के पीछे वर्षों तक चलती रहती है। निर्देशक मेहरान अमरोही की इस फिल्म ने करीब 10 साल तक डिब्बे में बंद रहने के बाद आखिरकार दर्शकों से अपनी बात कहने का मौका पाया है।

फिल्म ‘चिड़िया’ मुंबई की भीड़भाड़ वाली, तंग गलियों में बसी एक चॉल की पृष्ठभूमि में घटती है, जहां दो मासूम बच्चे शानू और बुआ अपनी मां वैष्णवी के साथ रहते हैं। पिता के देहांत के बाद, तीनों का जीवन आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। शानू और बुआ, दोनों ही कम उम्र में पढ़ाई के बजाय मेहनत-मजदूरी करने को मजबूर हैं। मां वैष्णवी, जिसे अमृता सुभाष ने बेहद संजीदगी से निभाया है, बच्चों की परवरिश के लिए हर तरह का संघर्ष कर रही है।

कहानी तब नया मोड़ लेती है जब दोनों भाई एक दिन काम की तलाश में एक फिल्म स्टूडियो जाते हैं और वहां उन्हें एक पुराना बैडमिंटन रैकेट दिखाई देता है। बस यहीं से उनकी ज़िंदगी में उम्मीद की एक नई किरण फूटती है। वे उस खेल की ओर खिंचे चले जाते हैं जिसे वो “जाली वाला खेल” कहते हैं – यानी बैडमिंटन। लेकिन उनके पास न अच्छा रैकेट है, न कोर्ट, और न ही प्रशिक्षण। फिर भी हिम्मत नहीं हारते, और अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक पुराने कबाड़खाने को बैडमिंटन कोर्ट में तब्दील कर देते हैं।

फिल्म एक सरल लेकिन बेहद प्रभावशाली संदेश देती है – सपनों को पाने के लिए ज़रूरी नहीं कि संसाधन हों, बल्कि ज़रूरी है जज़्बा और जिद। फिल्म की पटकथा दर्शकों को उन बारीकियों तक ले जाती है जहां गरीबी, असमानता और इच्छाशक्ति का टकराव होता है।

स्वर कांबले और आयुष पाठक ने दो भाइयों के किरदारों में शानदार अभिनय किया है, जो पूरी फिल्म की आत्मा हैं। वहीं, विनय पाठक, इनामुलहक, बृजेन्द्र काला, और हेतल गड़ा जैसे प्रतिभावान कलाकारों ने फिल्म को असल ज़िंदगी की तरह महसूस कराया है। विशेष उल्लेख विनय पाठक के किरदार ‘बाली’ का किया जाना चाहिए, जिन्होंने अपने किरदार को और अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए शूटिंग के दौरान स्पॉट बॉय के कपड़े पहनना चुना। उनके मुताबिक ये कपड़े किरदार की स्थिति और मानसिकता को बेहतर तरीके से दर्शाने में मदद करते थे।

इस फिल्म की एक और खास बात है इसका रियल ट्रीटमेंट – यानी नेचुरल लोकेशन्स, प्राकृतिक रोशनी का इस्तेमाल और बिना ग्लैमर के एक सच्ची कहानी। फिल्म के चॉल वाले दृश्य पुणे में शूट किए गए हैं और कुछ हिस्से एफटीआईआई व मुंबई के बाहरी इलाकों में फिल्माए गए।

हालांकि फिल्म 2015 में बनकर तैयार हो चुकी थी, लेकिन डिस्ट्रीब्यूशन में आई रुकावटों और संसाधनों की कमी के चलते यह एक दशक तक रिलीज़ नहीं हो सकी। यह फिल्म न केवल दो बच्चों के संघर्ष की कहानी है, बल्कि फिल्म निर्माण से जुड़े उन तमाम लोगों की भी कहानी है, जिन्होंने इसे कभी अधूरा नहीं माना।

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