जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:
मध्यप्रदेश में लागू की गई नई प्रमोशन नीति 2025 को लेकर दायर जनहित याचिका पर 14 अगस्त को हाईकोर्ट में अहम सुनवाई हुई। राज्य सरकार की ओर से अदालत से अतिरिक्त समय मांगा गया, जिसके पीछे कारण यह बताया गया कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता सी.एस. वैद्यनाथन और तुषार मेहता को इस मामले में बहस के लिए नियुक्त किया गया है। सरकार ने दलील दी कि दोनों वरिष्ठ वकीलों को राज्य का पक्ष मजबूती से रखने के लिए पर्याप्त तैयारी का समय मिलना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश की डिवीजन बेंच ने इस निवेदन को स्वीकार करते हुए अगली सुनवाई की तारीख 9 सितंबर तय की। सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता सुयश मोहन गुरु ने यह मुद्दा उठाया कि सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया चार्ट यह स्पष्ट नहीं करता कि आंकड़े जनगणना (Census) के आधार पर हैं या सेवाओं में कार्यरत कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व के आधार पर। इस पर अदालत ने निर्देश दिया कि सरकार तुलनात्मक रूप से सटीक और पारदर्शी आंकड़े प्रस्तुत करे। साथ ही यह भी स्पष्ट करने को कहा गया कि नई नीति में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्देशों का पालन किया गया है या नहीं।
इस नीति के खिलाफ याचिका अनारक्षित वर्ग के कर्मचारियों द्वारा दायर की गई है। उनका कहना है कि हाईकोर्ट पहले ही वर्ष 2002 के प्रमोशन नियमों को ‘आर.बी. राय केस’ में रद्द कर चुका है, इसके बावजूद राज्य सरकार ने लगभग उसी स्वरूप में नई नीति लागू कर दी है, जबकि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और वहां यथास्थिति बनाए रखने का आदेश पहले से प्रभावी है।
गौरतलब है कि मोहन यादव कैबिनेट ने 17 जून 2025 को नई पदोन्नति नीति को मंजूरी दी थी, जिसके बाद 19 जून को अधिसूचना जारी कर इसे लागू कर दिया गया। हालांकि, इस दौरान न तो सुप्रीम कोर्ट में लंबित विशेष अनुमति याचिका वापस ली गई और न ही पुराने नियम के तहत पदोन्नत कर्मचारियों को पदावनत करने की प्रक्रिया अपनाई गई। याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि नियम बनाते समय यह तथ्य ध्यान में लाया गया था, लेकिन सरकार ने इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया।
पिछली सुनवाई में राज्य के महाधिवक्ता प्रशांत सिंह ने हाईकोर्ट को आश्वासन दिया था कि अगली सुनवाई तक किसी भी कर्मचारी को नई नीति के तहत प्रमोशन नहीं दिया जाएगा। वहीं अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार को पुराने और नए नियमों के बीच के अंतर, नीति के संवैधानिक आधार और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुपालन पर विस्तृत जवाब देना होगा।
अब 9 सितंबर को होने वाली सुनवाई में यह देखना अहम होगा कि राज्य सरकार अपने तर्कों और दस्तावेजों के साथ अदालत को कितना संतुष्ट कर पाती है, क्योंकि मामला न केवल प्रशासनिक नीति बल्कि संवैधानिक व्यवस्था और आरक्षण के कानूनी ढांचे से जुड़ा हुआ है।