जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:
देश की न्यायपालिका और संसद के बीच मंगलवार को एक ऐतिहासिक घटनाक्रम सामने आया। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। यह कार्रवाई कथित ‘कैश कांड’ मामले में हुई है, जिसने न्यायपालिका की साख और पारदर्शिता को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
स्पीकर बिरला ने सदन में जानकारी दी कि उन्हें यह प्रस्ताव कुल 146 सांसदों के हस्ताक्षरों के साथ प्राप्त हुआ था, जिनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के अलावा विपक्ष के नेता भी शामिल थे। प्रस्ताव में जस्टिस वर्मा को उनके पद से हटाने की मांग की गई है। इस मांग को संवैधानिक रूप से आगे बढ़ाते हुए, स्पीकर ने अनुच्छेद 124 के तहत एक 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन किया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अरविंद कुमार, मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मनिंदर मोहन श्रीवास्तव और कर्नाटक हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता बी.वी. आचार्य शामिल हैं।
लोकसभा अध्यक्ष ने कहा कि इस मामले में सामने आए तथ्य भ्रष्टाचार की ओर संकेत करते हैं और ये इतने गंभीर हैं कि गहन जांच आवश्यक हो जाती है। उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट की इन-हाउस प्रक्रिया के तहत इस शिकायत की प्रारंभिक समीक्षा पहले ही की जा चुकी है। इसमें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) ने जस्टिस वर्मा की प्रतिक्रिया और दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को देखते हुए विस्तृत जांच की सिफारिश की थी। यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भी भेजी गई थी। स्पीकर के अनुसार, “बेदाग चरित्र ही न्यायपालिका में जनता के विश्वास की नींव है, और वर्तमान मामले में उपलब्ध साक्ष्य उस नींव को कमजोर करने वाले हैं।”
भारत में जजों के खिलाफ महाभियोग का दुर्लभ इतिहास
महाभियोग की प्रक्रिया भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4) और न्यायाधीश (जांच) अधिनियम के तहत की जाती है। देश के न्यायिक इतिहास में अब तक किसी भी जज को महाभियोग के जरिए पद से नहीं हटाया गया है, हालांकि यह प्रस्ताव छह बार लाया जा चुका है। केवल दो मामलों में प्रस्ताव पर संसद में गंभीर बहस हुई, लेकिन दोनों ही बार प्रक्रिया अधूरी रह गई।
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जस्टिस वी. रामास्वामी (1993): सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ वित्तीय अनियमितताओं के आरोप पर महाभियोग प्रस्ताव आया, लेकिन लोकसभा में आवश्यक दो-तिहाई बहुमत न मिलने से यह गिर गया।
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जस्टिस सौमित्र सेन (2011): कोलकाता हाईकोर्ट के जज पर धन गबन का आरोप साबित हुआ। राज्यसभा ने प्रस्ताव पास किया, लेकिन लोकसभा में बहस से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
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जस्टिस पी.डी. दिनाकरण (2011): भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग के आरोपों के चलते प्रक्रिया शुरू हुई, लेकिन उन्होंने भी बीच में इस्तीफा दे दिया।
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जस्टिस जे.बी. परदीवाला (2015): आरक्षण पर विवादास्पद टिप्पणी के कारण प्रस्ताव आया, जो बाद में उनकी टिप्पणी हटाने पर रद्द कर दिया गया।
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जस्टिस सी.वी. नार्गजुन रेड्डी (2017): दलित जज को टारगेट करने और वित्तीय गड़बड़ी के आरोपों पर प्रस्ताव आया, लेकिन समर्थन वापस ले लिया गया।
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चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा (2018): जस्टिस लोया मामले और अन्य अनियमितताओं को लेकर प्रस्ताव की तैयारी हुई, लेकिन राज्यसभा अध्यक्ष ने शुरुआती चरण में ही इसे खारिज कर दिया।
आगे क्या?
अब गठित तीन सदस्यीय समिति जस्टिस वर्मा के खिलाफ लगे आरोपों की निष्पक्ष जांच करेगी। समिति अपनी रिपोर्ट संसद को सौंपेगी, जिसके बाद ही यह तय होगा कि महाभियोग प्रस्ताव पर मतदान होगा या नहीं। मतदान की स्थिति में, लोकसभा और राज्यसभा—दोनों में प्रस्ताव को दो-तिहाई बहुमत से पारित होना आवश्यक है।