MP के पांढुर्णा का गोटमार मेला खून से फिर रंगा: दोपहर 3.20 बजे तक 488 लोग घायल, कलेक्टर ने लगाई धारा 144 लगाई!

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जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:

मध्य प्रदेश के पांढुर्णा में आयोजित गोटमार मेले ने इस साल भी हिंसा और पत्थरबाजी की भयावह तस्वीर सामने ला दी। शनिवार सुबह 10 बजे से शुरू हुई परंपरागत पत्थरबाजी महज़ तीन घंटे में खून-खराबे में बदल गई और दोपहर 3.20 बजे तक 488 लोग घायल हुए हैं। हालात बेकाबू होते देख कलेक्टर अजय देव शर्मा ने इलाके में धारा 144 लागू कर दी है।

बता दें, गोटमार मेले की शुरुआत होते ही पांढुर्णा और सावरगांव की तरफ़ से लोग बड़ी संख्या में जमा हुए। परंपरा के मुताबिक जाम नदी के दोनों ओर खड़े होकर गांवों के लोग एक-दूसरे पर पत्थरों की बौछार करते हैं। इस दौरान पलक झपकते ही नदी किनारे जंग का मैदान बन गया। तीन घंटे तक लगातार पत्थर बरसते रहे, जिससे हजारों लोग लहूलुहान हो गए।

मेले से पहले प्रशासन ने कड़े इंतजाम किए थे।

  • 600 पुलिस जवान,

  • 58 डॉक्टर,

  • और 200 मेडिकल स्टाफ मौके पर तैनात किया गया था।

घायल लोगों के इलाज के लिए 6 अस्थायी स्वास्थ्य शिविर भी लगाए गए थे। बावजूद इसके, लगातार बढ़ती हिंसा और भीड़ पर काबू पाना मुश्किल हो गया। इसके चलते प्रशासन को कड़ा कदम उठाते हुए धारा 144 लागू करनी पड़ी।

गोटमार मेले का इतिहास

गोटमार मेले की परंपरा सदियों पुरानी बताई जाती है। मान्यता के अनुसार— पांढुर्णा के एक युवक और सावरगांव की युवती के बीच प्रेम संबंध थे। एक दिन युवक युवती को लेकर अपने गांव लौट रहा था। दोनों जब जाम नदी के बीच पहुँचे, तो सावरगांव के लोगों को इसकी खबर लग गई। युवती को रोकने के लिए उन्होंने पत्थरों की बरसात शुरू कर दी। जवाब में पांढुर्णा के लोग भी पत्थरों से लड़ने लगे। इस हिंसा में प्रेमी युगल की मौत हो गई। तभी से हर साल जाम नदी के किनारे यह मेला आयोजित होता है और पत्थरबाजी इसकी पहचान बन गई है।

क्यों है मेला विवादों में?

  • हर साल हजारों लोग घायल होते हैं, कई बार मौतें भी हो चुकी हैं।

  • प्रशासन कई बार इस परंपरा को रोकने की कोशिश कर चुका है, लेकिन स्थानीय लोग इसे “शौर्य और परंपरा” से जोड़कर देखते हैं।

  • यही वजह है कि कानून-व्यवस्था और लोगों की जान पर भारी पड़ने के बावजूद यह मेला आज भी जारी है।

सवालों के घेरे में परंपरा

गोटमार मेला अब सिर्फ धार्मिक या सांस्कृतिक आयोजन नहीं रहा, बल्कि एक सामाजिक चुनौती बन गया है। जहां एक ओर ग्रामीण इसे अपनी पहचान और परंपरा मानते हैं, वहीं दूसरी ओर हर साल बड़ी संख्या में लोग घायल होने से इस परंपरा की आलोचना भी होती है। प्रशासन के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि परंपरा को सुरक्षित ढंग से कैसे निभाया जाए, ताकि लोगों की जान पर खतरा न बने।

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