जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:
उत्तरकाशी जिले के धराली में 5 अगस्त की दोपहर 1:45 बजे बादल फटने से आई बाढ़ ने 34 सेकेंड में पूरे गांव को मलबे में बदल दिया। खीर गंगा नदी के उफान में बहकर मकान, होटल और दुकानें पलभर में खत्म हो गए। अब तक पांच लोगों की मौत की पुष्टि हुई है, जबकि 100 से 150 लोग लापता हैं। 1000 से अधिक लोगों को सेना और NDRF ने एयरलिफ्ट कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया।
देवदार के जंगल — हिमालय का प्राकृतिक सुरक्षा कवच
हिमालय पर कई रिसर्च बुक लिख चुके वरिष्ठ पर्यावरणविद प्रो. शेखर पाठक का कहना है कि धराली जैसे इलाकों में होने वाली तबाही केवल बादल फटने की घटना नहीं है, बल्कि यह वर्षों से जारी पारिस्थितिकीय असंतुलन का परिणाम है।
कभी इस क्षेत्र के उच्च और ट्रांस हिमालय (2000 मीटर से ऊपर) में देवदार के घने जंगल हुआ करते थे। एक वर्ग किलोमीटर में 400 से 500 पेड़ होते थे, जो भारी बारिश और लैंडस्लाइड के दौरान मिट्टी और मलबे को नीचे आने से रोकते थे। धराली से ऊपर गंगोत्री क्षेत्र तो देवदार के सबसे घने जंगलों के लिए प्रसिद्ध था। लेकिन 19वीं सदी में हर्षिल पहुंचे अंग्रेज व्यापारी फैडरिक विल्सन ने बड़े पैमाने पर देवदार की कटाई शुरू की। तब से यह सिलसिला आज तक रुक नहीं पाया।
कटाई का असर — कमजोर हुए पहाड़, बढ़ा खतरा
प्रो. पाठक बताते हैं कि वर्तमान में धराली क्षेत्र में एक वर्ग किलोमीटर में सिर्फ 200-300 पेड़ ही बचे हैं, जिनमें भी अधिकतर नए और कमजोर हैं। पुराने, गहरे जड़ वाले पेड़ जो पहाड़ को मजबूती देते थे, अब लगभग गायब हो चुके हैं। बादल फटने जैसी घटनाओं में जब पानी और मलबा तेजी से बहता है, तो इन कमजोर वनस्पतियों से रोक पाना संभव नहीं होता।
ग्लेशियर नदी के किनारे बसा था बाजार
वरिष्ठ भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो. एमपीएस बिष्ट के अनुसार, जहां आज धराली का बाजार और होटल बने थे, वह असल में एक ग्लेशियर नदी का बहाव क्षेत्र था। यहां की मिट्टी बेहद उपजाऊ थी, इसलिए शुरू में घने जंगल बने। बाद में इन्हें काटकर खेत बनाए गए और सड़क आने के बाद खेतों पर बाजार और होटल खड़े हो गए। धराली का मूल गांव अब भी सुरक्षित है, क्योंकि वह अपेक्षाकृत ऊंचाई और सुरक्षित स्थान पर है।
फिर से जंगल बनाने की सिफारिश
वरिष्ठ भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो. एसपी सती मानते हैं कि यदि भविष्य में ऐसी आपदाओं को कम करना है, तो धराली जैसे संवेदनशील इलाकों से गांवों को हटाकर फिर से घने जंगल विकसित करने होंगे। उनका कहना है कि उत्तराखंड में दुनिया का सबसे पुराना देवदार का पेड़ चकराता में है, जिसकी उम्र 500 वर्ष से भी ज्यादा है। यह साबित करता है कि यदि सही ढंग से संरक्षण किया जाए, तो ये जंगल सदियों तक प्राकृतिक सुरक्षा कवच का काम कर सकते हैं।
रेस्क्यू में हाई-टेक तकनीक का सहारा
8 अगस्त से सेना और NDRF की टीम ने मलबे में दबे लोगों को खोजने के लिए एडवांस पेनिट्रेटिंग रडार का इस्तेमाल शुरू किया है। यह हाई-फ्रीक्वेंसी रेडियो तरंगें जमीन के भीतर भेजता है, जो मिट्टी, पत्थर, धातु और हड्डियों की पहचान रंगों के आधार पर कर सकता है। इससे बिना खुदाई किए ही 20-30 फीट गहराई तक दबे लोगों या शवों का पता लगाया जा सकता है।
स्थानीय संस्कृति में देवदार का महत्व
हिमालय के लोग देवदार को भगवान के समान पूजते हैं। इसके नीचे बांज जैसी घनी झाड़ियां होती हैं, जो मिट्टी को मजबूती से थामे रखती हैं। लेकिन अंधाधुंध कटाई के कारण यह प्राकृतिक ढाल अब कमजोर हो चुकी है। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि देवदार के जंगल अपनी पुरानी घनता में लौट आएं, तो न केवल मिट्टी का कटाव और भूधंसाव रुकेगा, बल्कि धराली जैसी त्रासदियों का खतरा भी काफी हद तक घट जाएगा।