मासूम मुस्कानें जो थम गईं
महिदपुर तहसील के छोटे से गाँव तुलसापुर की दोपहर बाकी दिनों जैसी ही थी। हवा में खेतों की खुशबू थी, बच्चे गली में खेल रहे थे, और हर घर से रसोई का धुआँ उठ रहा था। लेकिन पूजा के घर में उस दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने पूरे गाँव को सन्न कर दिया।
पूजा… तीन बेटियों की माँ। उसके आँगन में मासूम खिलखिलाहटें गूंजती थीं। उमा—चार साल की नटखट बिटिया, जिसकी आँखों में सपने थे; और अनिष्का—सिर्फ आठ महीने की, जिसकी हंसी अभी-अभी दुनिया से परिचित हुई थी। बड़ी बहन सात साल की थी, जो उस वक्त किसी रिश्तेदार के घर खेलने गई थी।
पर उस दिन दोपहर 2:30 बजे सब कुछ बदल गया। पूजा के मन का अंधेरा हावी हो गया। वह मानसिक पीड़ा से जूझ रही थी, लेकिन कोई उसका दर्द नहीं समझ पाया। अकेलेपन और बीमारी ने उसे ऐसी खाई में धकेल दिया, जहाँ से लौटना असंभव था।
पिता अशोक जब घर लौटे तो आँगन में सन्नाटा था। न उमा की किलकारियाँ, न अनिष्का की मीठी हंसी। अंदर जाकर उन्होंने देखा तो सब कुछ खत्म हो चुका था। उनकी मासूम परियाँ, जिनके साथ वे शाम को खेलते, उनकी छोटी-छोटी उंगलियों को थामकर सपने सजाते—अब हमेशा के लिए मौन थीं।
पूरे गाँव पर जैसे मातम छा गया। हर किसी की आँखें नम थीं, हर दिल पूछ रहा था—“आखिर क्यों?”
यह घटना केवल एक परिवार की त्रासदी नहीं थी, यह समाज के लिए चेतावनी थी। मानसिक बीमारी को अक्सर लोग नज़रअंदाज़ कर देते हैं, उसे कमजोरी मानते हैं। लेकिन यह घटना बता गई कि अगर समय रहते इलाज और सहारा न मिले तो यह ज़िंदगी छीन सकती है—मासूम ज़िंदगियाँ भी।
उमा और अनिष्का अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी मासूम मुस्कानें हमेशा याद दिलाएँगी कि किसी भी माँ-बाप, बेटे-बेटी या भाई-बहन के चेहरे के पीछे छिपे दर्द को समझना ज़रूरी है।